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कविता

दृष्टि की भाषा

विनय मिश्र


इस विपद में अश्रु ही
गहने हुए।

निकष पर संवेदनाओं के
चढ़े
गीत मेरे दिवस की खातिर
लड़े
एक भाषा दृष्टि की
पहने हुए।

शून्य का गहरा विवर औ
एक सच
अब यही तो रह गए हैं
शेष बच
अंक छूटे बस यही
अपने हुए।

ले रहा आकार
खालीपन कहीं
सृजन में ही है निहित
चिंतन कहीं
शब्द उर के फूटकर
झरने हुए।


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